एक बड़े नेता ने कुछ साल पहले कहा था कि राजनीतिक दलों के संगठन में भी अब तीन श्रेणियां हो गई हैं। पहली
खजूरिया, दूसरी हुजूरिया और तीसरी मजूरिया। खजूरिया वे लोग हैं जो निजी लाभ हासिल करने के लिए दल में रहते हैं। इसके बाद ऐसे लोग जो सिर्फ चमचागिरी, चापलूसी और जी हुजूरी में लगे रहते हैं, हुजूरिया कहलातेे हैं। तीसरे ऐसे कार्यकर्ता होते हैं जो बिना किसी अपेक्षा के रात-दिन काम मे लगे रहते हैं वे मजूरिया कहे जाने लगे हैं। इस वक्त भारतीय जनता पार्टी में भी बड़ा वर्ग खजूरिया व मजूरिया का है। राम मन्दिर आन्दोलन के दौरान इसमें मजूरिया यानी जमीनी कार्यकर्ताओं की बड़ी ताकत थी। जब से पार्टी सत्ता में आई संगठन पीछे छूट गया और उस पर हावी हो गई खजूरिया व हुजूरिया श्रेणी। पिछले साल चुनावों में मिली हार के बाद पार्टी में फील गुड, शाइनिंग इण्डिया और हाईटेक प्रचार के आवरण से बाहर निकलकर जमीनी संगठन खड़ा करने का हल्ला है। चूंकि भाजपा का राष्ट्रीय अधिवेशन 17 फरवरी से मध्यप्रदेश के इन्दौर में शुरू हो रहा है इसलिए ये सारी बातें जरूरी है।
अधिवेशन की तैयारियां जोरों पर हैं। कहा जा रहा है कि इन्दौर की जमीन से संगठन फिर उठ खड़ा होगा। पूरी चर्चा संगठन के ढांचे व जमीनी कार्यकर्ताओं के समान पर होगी। इसी उद्देश्य से संघ ने दिल्ली से देश चलाने वाले नेताओं को दरकिनार कर नागपुर से नितिन गडकरी को भेजा। संघ का मानना है कि यह बदलाव कारगर होगा। गडकरी सादगी का मन्त्र फंूकेंगे। कथनी-करनी का भेद मिटाएंगे। संघ की विचारधारा से पूरा ताना-बाना बुनेंगे। यह अधिवेशन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे न सिर्फ गडकरी की ताजपोशी होगी बल्कि इसमें हुए निर्णय ही पार्टी का भविष्य तय करेंगे। पालमपुर में 1989 में हुए अधिवेशन के बाद भाजपा का कोई अधिवेशन ऐसा यादगार नहीं रहा। पालमपुर में ही भाजपा ने राम जन्मभूमि आन्दोलन से जुड़ने का प्रस्ताव पारित किया था। उसके बाद वह लगातार ऊंचाइयों पर पहुंची और केन्द्र की सत्ता भी हासिल की। पर इन्दौर के अधिवेशन में पूरी चर्चा इन्तजामों, उनकी भव्यता पर हो रही है। कहीं भी विचारधारा या किन मुद्दों पर चर्चा होगी, इसकी बात नहीं हो रही।
इस अधिवेशन में मुय नारा सादगी है। पूरा आयोजन होटल व फाइव स्टार संस्कृति से दूर होगा, ऐसा दावा है। संघ की तर्ज पर तंबू लगाए जा रहे हैं। सारे बड़े नेता संघ शिविरों की तरह तंबू में रहेंगे। पर सिर्फ तंबू लगा लेने से कोई संघ की तरह नहीं हो जाता, जरूरी है कि संघ की तरह पूरा आयोजन हो। इन तंबूओं के खर्चे की बड़ी चर्चा है। नज़र डालिए इस फाइव स्टार सादगी पर। सारे तंबू वॉटर प्रूफ हैं। उनमें से ज्यादातर एयरकण्डीशण्ड रहेंगे। प्रत्येक तंबू के साथ अटैच लेट-बॉथ। अस्थायी टायलेट्स का खर्च करीब एक करोड़ है। वहीं पानी की लाइन व इन्तजाम पर खर्च होंगे 12 लाख रुपये। इसमें मिनरल वॉटर का खर्च शामिल नहीं है। बिजली कनेक्शन का खर्च 16 से 20 लाख है। नेताओं के लाने-ले जाने के लिए गाçड़यों पर खर्च होंगे 20 से 25 लाख रु.। इसके अलावा खाने के इन्तजाम पर करीब 50 लाख का खर्च होने का अनुमान है। सादगी की मिसाल बनने वाली इन 1200 झोपçड़यों का किराया है करीब 20 लाख। यानी एक झोपड़ी का औसत किराया 1600 रुपये। उस पर भी नेताओं के लिए नहाने के लिए गर्म पानी का इन्तजाम करीब पांच किलोमीटर दूर सांची दुग्ध सेंटर से होगा। वहां से पानी गर्म होकर टैंकरों से अधिवेशन स्थल तक आएगा। उस पर एक और शिगूफा, अधिवेशन स्थल पर नेता साइकिल का उपयोग करेंगे ताकि पर्यावरण न बिगडे। कब तक नेता यह समझते रहेंगे कि जमीनी कार्यकर्ता व जनता को वे आसानी से धोखा दे सकते हैं। अब जमाना बदल गया है बच्चा-बच्चा जानता है कि साइकल से पर्यावरण नहीं बचेगा यदि पर्यावरण की फिक्र इतनी ही है तो एयरकण्डीशण्ड व नेताओं की सेवा में लगी सात सौ गाçड़यां से होने वाले प्रदूषण पर भी गौर करिए।
ऐसा नहीं है कि दूसरे राजनीतिक दलों के अधिवेशन में ऐसी शाहखर्ची नहीं होती। कांग्रेस के सूरजकुण्ड व पचमढ़ी अधिवेशन भी ऐसे ही रहे हैं। पर उनके प्रस्तावों पर आज जनता में या कार्यकर्ताओं में कोई बात नहीं होती। जब भी इनकी बात आती है तो हलुए, रबड़ी और दाल-बाफले जैसे व्यंजन, ठहराने के इन्तजाम ही याद किए जाते हैं। क्या भाजपा का यह अधिवेशन भी चिन्तन, विचारधारा या किसी ठोस प्रस्ताव के बजाए सिर्फ हलुआ पूरी, मालवा के व्यंजन और मेहमाननवाजी के लिए ही जाना जाएगा? इन्दौर में संघ से जुडे व संघ को जानने वाले लोगों की संया कम नहीं है। यह वही शहर है जहां संघ के बड़े-बड़े शिविरों में खाने का इन्तजाम पूरे शहर से घर-घर से रोटियां इक_ा कर होता रहा है। इसके पीछे फिजूलखर्ची रोकने के साथ-साथ आम जनता और कार्यकर्ताओं को दिल से जोड़ने का भी रहा है। यकीन मानिए, यदि भाजपा यही तरीका अपनाती तो आम कार्यकर्ता के साथ-साथ जनता भी उन्हें भोजन देने में गर्व महसूस करती। वे हर घर में पैठ बना लेते। गडकरी प्रशंसा के सही हकदार बनते और दूसरे सभी अधिवेशन के लिए मिसाल भी। कांगे्रस नेता दिग्विजय सिंह ने हाल ही में बयान भी दिया था कि ये तंबू सिर्फ दिखावा है, खाना तो फाइव स्टार से ही मंगाकर खाएंगे ये भाजपाई। भाजपा के अधिवेशन में अब तक कहीं इस बात का जिक्र नहीं आया कि प्रस्ताव कौन से होंगे। पार्टी के सामने चुनौतियां क्या हैं। कौन इन मुद्दों के लिए तैयारी कर रहा है। भाजपा जैसे दलों को संगठनात्मक ढांचे के लिए वामदलों से सीख लेनी चाहिए। उनके बड़े-बड़े अधिवेशन बड़ी सादगी से निपट जाते हैं। वे कभी खाने और ठहरने के इन्तजामों के लिए चर्चा में नहीं रहते। अधिवेशन के बहुत पहले से ही उनके प्रस्तावों, विचारधारा और भविष्य की रणनीति पर चर्चा शुरू हो जाती है। मीडिया में भी चर्चा चिन्तन की ही रहती है।
अगर आप समाजसेवा, राष्ट्रसेवा पर चलें तो खुद की सुविधाओं पर इतना खर्च कितना जायज है। यह पैसा कहां से आ रहा है, यह सच समाज जानता है और जानना भी चाहता है। यदि इससे यह लगता है कि कार्यताओं में कोई सन्देश जाएगा तो गलत है। कार्यकर्ता को पता है कि चने व सत्तू खाकर चुनाव लड़ने का भी इतिहास रहा है। किसी भी पार्टी की पूरी मानसिकता सुविधाभोगी हो जाना अच्छा संकेत नहीं है। जो नेता सादगी का पाठ पढ़ाते हैं उनका व्यवहार खुद पूंजीपतियों से कम नहीं होता। पाटिüयों में आजकल घोषित या अघोषित रूप से उद्योगपतियों के घरानों या दलालों के जरिए हवाई यात्रा का चलन बढ़ा है। कितने लोगों ने किसी राजनेता को सड़क से गुजरते देखा है। बरसों बीत गए स्लीपर क्लास में किसी सांसद या प्रदेश अध्यक्ष को देखे। तमाम मुद्दों पर रथ यात्रा निकालने वाले दल क्यों महंगाई के खिलाफ कोई रथयात्रा नहीं निकालते। क्यों राजनीतिक दल जनता खासकर युवाओं का सीधे सामना करने से बचते हैं। इस अधिवेशन में नेतृत्व और नीति, दोनों पर चिन्तन जरूरी है। जरूरी है कि पार्टी में इस पर भी बहस हो कि रेaी बंधु व शिबू सोरेन कब तक हमारी मजबूरी रहेंगे। यदि इन सारे मुद्दों पर बहस नहीं हुई तो गडकरी की ताजपोशी भाजपा में सिर्फ व्यçक्त बदल साबित होगी, संगठन वैसा ही रहेगा। संघ ने हमेशा व्यçक्त से ऊपर व्यवस्था और संगठन को रखा है। ऐसे में यह सन्देश जरूर जाना चाहिए कि व्यवस्था भी बदल रही है, वरना भाजपा का यह अधिवेशन भी शाही शादियों की तरह छप्पन पकवान व डेकोरेशन के लिए ही जाना जाएगा।